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उप॒ त्या वह्नी॑ गमतो॒ विशं॑ नो रक्षो॒हणा॒ सम्भृ॑ता वी॒ळुपा॑णी । समन्धां॑स्यग्मत मत्स॒राणि॒ मा नो॑ मर्धिष्ट॒मा ग॑तं शि॒वेन॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa tyā vahnī gamato viśaṁ no rakṣohaṇā sambhṛtā vīḻupāṇī | sam andhāṁsy agmata matsarāṇi mā no mardhiṣṭam ā gataṁ śivena ||

पद पाठ

उप॑ । त्या । वह्नी॒ इति॑ । ग॒म॒तः॒ । विश॑म् । नः॒ । र॒क्षः॒ऽहना॑ । सम्ऽभृ॑ता । वी॒ळुपा॑णी॒ इति॑ वी॒ळुऽपा॑णी । सम् । अन्धां॑सि । अ॒ग्म॒त॒ । म॒त्स॒राणि॑ । मा । नः॒ । म॒र्धि॒ष्ट॒म् । आ । ग॒त॒म् । शि॒वेन॑ ॥ ७.७३.४

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:73» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:20» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

अब दुष्टों से रक्षार्थ उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (रक्षोहणा) हे राक्षसों के हन्ता (वीळुपाणी) दृढ भुजाओंवाले विद्वानों ! (त्या) आप लोग (संभृता) उत्तमगुणसम्पन्न (नः) हमारी (विशं) प्रजा को (गमतः) प्राप्त होकर (वह्नी) प्रज्वलित अग्नि में (उप) भले प्रकार (अन्धांसि अग्मत) उत्तमोत्तम हवि प्रदान करते हुए (मा मत्सराणि) मदकारक द्रव्यों से हमारी रक्षा करें, (नः) हमारी (सं मर्धिष्टं) किसी प्रकार भी हिंसा न करें, (शिवेन) कल्याणरूप से (आगतं) हमको सदा प्राप्त हों ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे शूरवीर विद्वानों ! आप लोग धर्मिक प्रजा को प्राप्त होकर उत्तमोत्तम पदार्थों से नित्य यज्ञ कराओ, प्रजा को सदाचारी बनाओ, मदकारक द्रव्यों से उन्हें बचाओ, उनमें अहिंसा का उपदेश करो और दुष्ट राक्षसों से सदा उनकी रक्षा करते रहो, जिससे उनके यज्ञादि कर्मों में विघ्न न हो अर्थात् आप लोग प्रजा को सदा ही कल्याणरूप से प्राप्त हों ॥४॥
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आर्यमुनि

अथ दुष्टेभ्यः स्वं रक्षितुमुपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - (रक्षोहणा) हे राक्षसहन्तारः (वीळुपाणी) दृढभुजावन्तः (सम्भृता) उत्तमगुणसम्पन्ना विद्वांसः ! (त्या) ते यूयं (नः) अस्माकं (विशम्) प्रजाः (गमतः) सम्प्राप्य (वह्नी) प्रदीप्ताग्नौ (अन्धांसि) हव्यानि (उप अग्मत) जुहुत (मा मत्सराणि) मादकैर्द्रव्यैर्मां रक्षत (सम् मर्धिष्टम्) मा पीडयत (शिवेन) कल्याणरूपेण (आगतम्) मां सदा प्राप्नुत ॥४॥